Lekhika Ranchi

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रंगभूमि--मुंशी प्रेमचंद



इंदु-बक-बक मत करो, गाड़ी लौटा ले चलो।
कोचवान ने गाड़ी फेड़ दी। इंदु ने एक लम्बी साँस ली और सोचने लगी-सब लोग मेरा इंतजार कर रहे होंगे; गाड़ी देखते ही पहचान गए थे। अम्माँ कितनी खुश हुई होंगी; पर गाड़ी लौटते देखकर उन्हें और अन्य सब आदमियों को कितना विस्मय हुआ होगा! कोचवान से कहा-जरा पीछे फिरकर देखो, कोई आ तो नहीं रहा है?
कोचवान-हुजूर, कोई गाड़ी तो आ रही।
इंदु-घोड़ों को तेज कर दो, चौगाम छोड़ दो।
कोचवान-हुजूर, गाड़ी नहीं, मोटर है, साफ मोटर है।
इंदु-घोड़ों को चाबुक लगाओ।
कोचवान-हुजूर, यह तो अपनी ही मोटर मालूम होती है, हींगनसिंह चला रहे हैं। खूब पहचान गया, अपनी ही मोटर है।
इंदु-पागल हो, अपनी मोटर यहाँ क्यों आने लगी?
कोचवान-हुजूर, अपनी मोटर न हो, तो जो चोर की सजा, वह मेरी। साफ़ नजर आ रही है, वही रंग है। ऐसी मोटर इस शहर में दूसरी है ही नहीं।
इंदु-जरा गौर से देखो।
कोचवान-क्या देखूँ हुजूर, वह आ पहुँची, सरकार बैठे हैं।
इंदु-ख्वाब तो नहीं देख रहा है!
कोचवान-लीजिए, हुजूर, यह बराबर आ गई।
इंदु ने घबराकर बाहर देखा, तो सचमुच अपनी ही मोटर थी। गाड़ी के बराबर आकर रुक गई और राजा साहब उतर पड़े कोचवान ने गाड़ी रोक दी। इंदु चकित होकर बोली-आप कब आ गए?
राजा-तुम्हारे आने के पाँच मिनट बाद मैं भी चल पड़ा।
इंदु-रास्ते में तो कहीं नहीं दिखाई दिए।
राजा-लाइन की तरफ से आया हूँ। इधर की सड़क खराब है। मैंने समझा, जरा चक्कर तो पड़ेगा, मगर जल्द पहुँचूँगा। तुम स्टेशन के सामने से कैसे लौट आईं? क्या बात है? तबियत तो अच्छी है? मैं तो घबरा गया। आओ, मोटर पर बैठ जाओ। स्टेशन पर गाड़ी आ गई है,दस मिनट में छूट जाएगी। लोग उत्सुक हो रहे हैं।
इंदु-अब मैं न जाऊँगी। आप तो पहुँच ही गए थे।
राजा-तुम्हें चलना ही पड़ेगा।
इंदु-मुझे मजबूर न कीजिए, मैं न जाऊँगी।
राजा-पहले तो तुम यहाँ आने के लिए इतनी उत्सुक थीं, अब क्यों इनकार कर रही हो?
इंदु-आपकी इच्छा के विरुध्द आई थी। आपने मेरे कारण अपने नियम का उल्लंघन किया है, तो मैं किस मुँह से वहाँ जा सकती हूँ?आपने मुझे सदा के लिए शालीनता का सबक दे दिया।
राजा-मैं उन लोगों से तुम्हें लाने का वादा कर आया हूँ। तुम न चलोगी, तो मुझे कितना लज्जित होना पड़ेगा।
इंदु-आप व्यर्थ इतना आग्रह कर रहे हैं। आपको मुझसे नाराज होने का यह अंतिम अवसर था। अब फिर इतना दुस्साहस न करूँगी।
राजा-एंजिन सीटी दे रहा है।
इंदु-ईश्वर के लिए मुझे जाने दीजिए।
राजा ने निराश होकर कहा-जैसी तुम्हारी इच्छा! मालूम होता है, हमारे और तुम्हारे ग्रहों में कोई मौलिक विरोध है, जो पग-पग पर अपना फल दिखलाता रहता है।
यह कहकर वह मोटर पर सवार हो गए, और बड़े वेग से स्टेशन की तरफ से चले। बग्घी भी आगे बढ़ी। कोचवान ने पूछा-हुजूर गईं क्यों नहीं? सरकार बुरा मान गए।
इंदु ने इसका कुछ जवाब न दिया। वह सोच रही थी-क्या मुझसे फिर भूल हुई? क्या मेरा जाना उचित था? क्या वह शुध्द हृदय से मेरे जाने के लिए आग्रह कर रहे थे या एक थप्पड़ लगाकर दूसरा थप्पड़ लगाना चाहते थे? ईश्वर ही जानें। वही अंतर्यामी हैं, मैं किसी के दिल की बात क्या जानूँ!
गाड़ी धीरे-धीरे आगे बढ़ती जाती थी। आकाश पर छाए हुए बादल फटते जाते थे; पर इंदु के हृदय पर छाई हुई घटा प्रतिक्षण और भी घनी होती जाती थी-आह! क्या वस्तुत: हमारे ग्रहों में कोई मौलिक विरोध है, जो पग-पग पर मेरी आकांक्षाओं को दलित करता रहता है? मैं कितना चाहती हूँ कि उनकी इच्छा के विरुध्द एक कदम भी न चलूँ; किंतु यह प्रकृति-विरोध मुझे हमेशा नीचा दिखाता है। अगर वह शुध्द मन से अनुरोध कर रहे थे, तो मेरा इनकार सर्वथा असंगत था। आह! उन्हें मेरे हाथों फिर कष्ट पहुँचा। उन्होंने अपनी स्वाभाविक सज्जनता से मेरा अपराध क्षमा किया और मेरा मान रखने के लिए अपने सिध्दांत की परवा न की। समझे होंगे, अकेली जाएगी, तो लोग खयाल करेंगे, पति की इच्छा के विरुध्द आई है, नहीं तो क्या वह भी न आते? मुझे इस अपमान से बचाने के लिए उन्होंने अपने ऊपर इतना अत्याचार किया। मेरी जड़ता से वह कितने हताश हुए हैं, नहीं तो उनके मुँह से यह वाक्य कदापि न निकलता। मैं सचमुच अभागिनी हूँ।
इन्हीं विषादमय विचारों में डूबी हुई वह चंद्रभवन पहुँची और गाड़ी से उतरकर सीधो राजा साहब के दीवानखाने में जा बैठी। आँखें चुरा रही थी कि किसी नौकर-चाकर से सामना न हो जाए। उसे ऐसा जान पड़ता था कि मेरे मुख पर कोई दाग लगा हुआ है। जी चाहता था, राजा साहब आते-ही-आते मुझ पर बिगड़ने लगें, मुझे खूब आड़े हाथों लें, हृदय को तानों से चलनी कर दें, यही उनकी शुध्द-हृदयता का प्रमाण होगा। यदि वह आकर मुझसे मीठी-मीठी बातें करने लगें, तो समझ जाऊँगी, मेरी तरफ से उनका दिल साफ नहीं है, यह सब केवल शिष्टाचार है। वह इस समय पति की कठोरता की इच्छुक थी। गरमियों में किसान वर्षा का नहीं, ताप का भूखा होता है।
इंदु को बहुत देर तक न बैठना पड़ा। पाँच बजते-बजते राजा साहब आ पहुँचे। इंदु का हृदय धक-धक करने लगा, वह उठकर द्वार पर खड़ी हो गई। राजा साहब उसे देखते ही बड़े मधुर स्वर से बोले-तुमने आज जातीय उद्गारों का एक अपूर्व दृश्य देखने का अवसर खो दिया। बड़ा ही मनोहर दृश्य था। कई हजार मनुष्यों ने जब यात्रियों पर पुष्प-वर्षा की, तो सारी भूमि फूलों से ढँक गई। सेवकों का राष्ट्रीय गान इतना भावमय, इतना प्रभावोत्पादक था कि दर्शक-वृंद मुग्ध हो गए। मेरा हृदय जातीय गौरव से उछला पड़ता था। बार-बार यही खेद होता है कि तुम न हुईं। यही समझ लो कि मैं उस आनंद को प्रकट नहीं कर सकता। मेरे मन में सेवा-समिति के विषय में जितनी शंकाएँ थीं, वे सब शांत हो गईं। यही जी चाहता था कि मैं भी सब कुछ छोड़-छाड़कर इस दल के साथ चला जाता। डॉक्टर गांगुली को अब तक मैं निरा बकवादी समझता था। आज मैं उनका उत्साह और साहस देखकर दंग रह गया। तुमसे बड़ी भूल हुई। तुम्हारी माताजी बार-बार पछताती थीं।
इंदु को जिस बात की शंका थी, वह पूरी हो गई। सोचा-यह सब कपटलीला है। इनका दिल साफ नहीं है। यह मुझे बेवकूफ समझते हैं और बेवकूफ बनाना चाहते हैं। इन मीठी बातों की आड़ में कितनी कटुता छिपी हुई है। चिढ़कर बोली-मैं जाती, तो आपको जरूर बुरा मालूम होता।
राजा-(हँसकर) केवल इसलिए कि मैंने तुम्हें जाने से रोका था? अगर मुझे बुरा मालूम होता, तो मैं खुद क्यों जाता?
इंदु-मालूम नहीं, आप क्या समझकर गए। शायद मुझे लज्जित करना चाहते होंगे।
राजा-इंदु, इतना अविश्वास मत करो। सच कहता हूँ, मुझे तुम्हारे जाने का जरा मलाल न होता। मैं यह स्वीकार करता हूँ कि पहले मुझे तुम्हारी जिद बुरी लगी; किंतु जब मैंने विचार किया, तो मुझे अपना आचरण सर्वथा अन्यायपूर्ण प्रतीत हुआ। मुझे ज्ञात हुआ कि तुम्हारी स्वेच्छा को इतना दबा देना सर्वथा अनुचित है। अपने इसी अन्याय का प्रायश्चित्त करने के लिए मैं स्टेशन गया। तुम्हारी यह बात मेरे मन में बैठ गई कि हुक्काम का विश्वासपात्र बने रहने के लिए अपनी स्वाधीनता का बलिदान क्यों करते हो, नेकनाम रहना अच्छी बात है, किंतु नेकनामी के लिए सच्ची बातों में दबना अपनी आत्मा की हत्या करना है। अब तो तुम्हें मेरी बातों का विश्वास आया?
इंदु-आपकी दलीलों का जवाब नहीं दे सकती; लेकिन मैं आपसे प्रार्थना करती हूँ कि जब मुझसे कोई भूल हो जाए, तो आप मुझे दंड दिया करें, मुझे खूब धिक्कारा करें। अपराध और दंड में कारण और कार्य का सम्बंध है, और यही मेरी समझ में आता है। अपराधी के सिर तेल चुपड़ते मैंने किसी को नहीं देखा। मुझे यह अस्वाभाविक जान पड़ता है। इससे मेरे मन में भाँति-भाँति की शंकाएँ उठने लगती हैं।
राजा-देवी रूठती हैं, तो लोग उन्हें मनाते हैं। इसमें अस्वाभाविकता क्या है!
दोंनों में देर तक सवाल-जवाब होता रहा। महेंद्र बहेलिए की भाँति दाना दिखाकर चिड़िया फँसाना चाहते थे और चिड़िया सशंक होकर उड़ जाती थी। कपट में से कपट ही पैदा होता है। वह इंदु को आश्वासित न कर सके। तब वह उनकी व्यथा को शांत करने का भार समय पर छोड़कर एक पत्र पढ़ने लगे और इंदु दिल पर बोझ रखे हुए अंदर चली गई।
दूसरे दिन राजा साहब ने दैनिक पत्र खोला, तो उसमें सेवकों की यात्रा का वृत्तांत बड़े विस्तार से प्रकाशित हुआ था। इसी प्रसंग में लेखक ने राजा साहब की उपस्थिति पर भी टीका की थी :
'इस अवसर पर म्युनिसिपैलिटी के प्रधान राजा महेंद्रकुमार सिंह का मौजूद होना बड़े महत्व की बात है। आश्चर्य है कि राजा साहब-जैसे विवेकशील पुरुष ने वहाँ जाना क्यों आवश्यक समझा? राजा साहब अपने व्यक्तित्व को अपने पद से पृथक् नहीं कर सकते और उनकी उपस्थिति सरकार को उलझन में डालने का कारण हो सकती है। अनुभव ने यह बात सिध्द कर दी है कि सेवा-समितियाँ चाहे कितनी शुभेच्छाओं से भी गर्भित हों, पर कालांतर में वे विद्रोह और अशांति का केंद्र बन जाती हैं। क्या राजा साहब इसका जिम्मा ले सकते हैं कि यह समिति आगे चलकर अपनी पूर्ववर्ती संस्थाओं का अनुसरण न करेगी?'

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